Schlaflied

das ist ein Schlaflied für alle, die sich wehren 
wenn es ans Einschlafen geht, Schlaflied 
für alle, die Widerstand leisten, wenn es heißt: 
Licht aus, hier wird nicht gesprochen. meine 
müden Freunde, alle Stühle stehen längst 
auf den Tischen der Bars, Werbetafeln surren 
beim Tausch der Plakate, Kameras filmen 
die leeren Eingangspforten der Banken, alle 
Nachtschalter leuchten, alle Nachtbusse 
durchstreifen die angestrahlte Kathedrale 

der Stadt. wir reden nur noch in Bildern. aber 

wissen wir überhaupt, wie sich „Dunkelheit“ 
schreibt? meine müden, nachtblinden Freunde 
wir warten auf gute Nachricht, denn gute 
Nachricht bei Tage ist rar, wir warten auf zwei 
drei von den guten, surrenden Träumen 
vier Friedensverträge, fünf Äpfel im Tiefschlaf 
wir warten auf sechs Kathedralen und auf 
die sieben fetten Kühe, acht stille Stunden 
voll Schlaf, wir warten auf neun fehlende 
Freunde. wir zählen die Anzahl unserer Finger. 

wir wehren uns noch. wir schlafen nicht ein.

© Ulrike Almut Sandig
Audio production: Literaturwerkstatt Berlin, 2016

लोरी

यह लोरी उन सबके लिए, जो विरोध करते हैं 
जब सोने के लिए कहा जाता है, लोरी
उनके लिए जो डटे रहते हैं, जब कहा जाता है:
बत्ती बुझाओ, अब बातचीत बंद करो. मेरे 
थके हुए दोस्तों कुर्सियां पहले ही
बारों की मेजों पर रखी जा चुकी हैं, बिलबोर्ड सरसरा रहे हैं
तस्वीरों के बदलने पर, कैमरे निगरानी कर रहे हैं
बैंकों के उजाड़ बरामदों की, सभी 
दुकानों के रात्रि-काउंटर जगमगा रहे हैं, सभी रात की बसें 
गुज़र रही हैं गिरजाघर की मानिंद रोशनी में नहाये 

शहर में. हम सिर्फ तस्वीरों की मार्फ़त बोल रहे हैं. लेकिन 

क्या हमें पता है, “अंधियारा” कैसे 
लिखा जाता है? मेरे थके-मांदे, रतौंधी-ग्रस्त दोस्तों
हमें इंतज़ार है अच्छी खबर का, क्योंकि 
दिन के वक्त अच्छी खबर दुर्लभ है, हमें इंतज़ार है दो
तीन सुखद-सुन्दर, गुंजार करते सपनों का 
चार सुलहनामों का, गहरी नींद में पांच सेबों का
हमें इंतज़ार है छः गिरजाघरों और 
सात तगड़ी गायों का, आठ घंटों की
चैन-भरी नींद का, हमें इंतज़ार है नौ अनुपस्थित 
दोस्तों का, हम गिन रहे हैं अपनी उँगलियों की संख्या. 

हम अब भी कर रहे हैं विरोध. हम सोयेंगे नहीं. 

Translated into Hindi by Mangalesh Dabral

A result of the project Poets Translating Poets. Versschmuggel mit Südasien, organised in 2015 by the Goethe Institute in collaboration with Literaturwerkstatt Berlin/Haus für Poesie