मैं किसकी औरत हूँ

मैं किसकी औरत हूँ
कौन है मेरा परमेश्वर
किसके पाँव दबाती हूँ
किसका दिया खाती हूँ
किसकी मार सहती हूँ...
ऐसे ही थे सवाल उसके
बैठी थी जो मेरे सामनेवाली सीट पर रेलगाडी में
मेरे साथ सफर करती

उम्र होगी कोई सत्तर-पचहत्तर साल
आँखे धँस गयी थीं उसकी
मांस शरीर से झूल रहा था
चेहरे पर थे दुख के पठार
थीं अनेक फटकारों की खाइयाँ

सोचकर बहुत मैंने कहा उससे
‘मैं किसी की औरत नहीं हूँ
मैं अपनी औरत हूँ
अपना खाती हूँ
जब जी चाहता है तब खाती हूँ
मैं किसीकी मार नहीं सहती
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं’

उसकी आँखों में भर आई एक असहज ख़ामोशी
आह! कैसे कटेगा इस औरत का जीवन!
संशय में पड गयी वह
समझते हुए सभी कुछ
मैंने उसकी आँखों को अपने अकेलेपन के गर्व से भरना चाहा
फिर हँस कर कहा ‘मेरा जीवन तुम्हारा ही जीवन है
मेरी यात्रा तुम्हारी ही यात्रा
लेकिन कुछ घटित हुआ जिसे तुम नहीं जानती—
हम सब जानते हैं अब
कि कोई किसीका नहीं होता
सब अपने होते हैं
अपने आप में लथपथ-अपने होने के हक़ से लक़दक़’

यात्रा लेकिन यहीं समाप्त नहीं हुई है
अभी पार करनी हैं कई और खाइयाँ फटकारों की
दुख के एक दो और समुद्र
पठार यातनाओं के अभी और दो चार
जब आख़िर आएगी हर वह औरत
जिसे देख तुम और भी विस्मित होओगी
भयभीत भी शायद
रोओगी उसके जीवन के लिए फिर हो सशंकित
कैसे कटेगा इस औरत का जीवन फिर से कहोगी तुम
लेकिन वह हँसेगी मेरी ही तरह
फिर कहेगी—
‘उन्मुक्त हूँ देखो,
और यह आसमान
समुद्र यह और उसकी लहरें
हवा यह
और इसमें बसी प्रकृति की गंध सब मेरी हैं
और मैं हूँ अपने पूर्वजों के शाप और अभिलाषाओं से दूर
पूर्णतया अपनी’

© Savita Singh
Audioproduktion: Goethe Institut, 2015